शनिवार, 9 अप्रैल 2016

झीरम जिसका हिस्सा...दंडकारण्य राक्षसों की निवास स्थाली

रामचरित मानस में जिस स्थान का वर्णन राक्षसों के निवास के लिए उल्लेखित हो छत्तीसगढ़ के ऐसे दक्षिणी भाग रहस्य मय और रोमांचक क्यों न हो। छत्तीसगढ़ को जो लोग जानते हैं उन्हें यह भी जानना चाहिए की इसके उत्तरी भाग में सरगुजा (देवता और हाथियों का क्षेत्र) तो दक्षिणी भाग में स्थित है दंडकारण्य (दंडक राक्षस का निवास) जिसका हिस्सा बस्तर है। इसी बस्तर संभाग का मुख्यालय और जगदलुपर जिला का जिला मुख्यालय जगदलपुर में है। इसी जगदलपुर के आस पास इस अनजान झीरम लेख और झीरम ब्लॉग को आप पड़ेंगे। इस ब्लॉग के लेख जगदलपुर और बस्तर संभाग में घटी नक्सल घटनाओं से संबंधित हैं... यह आगे भी रहेंगी। यह बताना यहां जरूरी है कि जब भी जगदलपुर का जिक्र हुआ है तो दिल्ली जरूर जागी है। जगदलपुर में होने वाली छोटी हलचल भी दिल्ली तक पहुंच रखती है। यह नई बात नहीं है क्योंकि यहां के राजा हमेशा अपनी विशिष्ट पहचान रखते थे। इसलिए बस्तर अपने मुद्दे और सस्याओं के कारण हमेशा चर्चा में रहा हैं। घने वन और वादी के बीच जगदलपुर चारों ओर से पहाड़ियों से घिरा बसा है। कहा जाता है कि काकतिया राजा जिसे पाण्डवों का वंशज कहा जाता है ने जगदलपुर को अपनी अंतिम राजधानी बनाया और इसे विकसित किया। इसका नाम पूर्व में जगतुगुड़ा था बाद में बदलकर जगदलपुर हुआ। जगदलपुर को चौराहों का शहर भी कहा जाता है। इसे बहुत ही खूबसुरत तरीके से बसाया गया है। विभिन्न संस्कृतियों के संगम होने के साथ ही यहां जगन्नाथ पीठ का भव्य मंदिर और देवी दंतेश्वरी का मंदिर है। सबसे ज्यादा प्रचलित यहां के 40 दिनों तक चलने वाला दशहरा है। इसकी प्रसिद्धि विश्व के कोने-कोने में है और यही वजह है कि यहां दुनिया भर से लोग चलकर आते हैं। कहा जाता है न जहां अच्छाई होती है वहीं बुराई भी पनपता है बस यही वजह है कि इस हसीन वादी क्षेत्र में नक्सल नामक बुराई उभरी और गाजर घांस की तरह पनपती चली गई। जगदलपुर का वनांचल क्षेत्र नक्सली गतिविधियों का स्थाई ठिकाना हो गया। यह सबसे ज्यादा प्रसिद्धि 2010 में पाया, लेकिन उससे कहीं ज्यादा चर्चा में 2013 में आया। जी हां जगदलपुर के दरभा थाना क्षेत्र की छोटे- मोड वाली गहरी घाटी दरभा और झीरम को दुनिया जानती तक नहीं थी। यह अनजान घाटी 25 मई 2013 के बाद अपना इतिहास नक्सलियों के ठिकाने के लिए लिख दी। इसके बाद अब यह इतिहास के पन्ने में अपने भयानक और खून की प्यासी होने को लेकर हमेशा चर्चा में रहेगी। हालांकि इस वादी और इस क्षेत्र में पहली बार खून नहीं बहा। इस क्षेत्र में पहली बार हमला और नर संहार नहीं हुआ। नक्सली के बड़े हमले इस पूरे क्षेत्र में कई सालों से तो चल ही रहे हैं। नक्सली से पहले भी इन जंगल, पहाड़ों के बीच में छिपे हमलावर रहते थे। तभी तो इस क्षेत्र का नाम दंडकारण्य पड़ा था। इसका उल्लेख रामचरित मानस में भी है। दंडकारण्य पूर्वी मध्य भारत का वह भौतिक क्षेत्र है जो लगभग 92,300 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैला हुआ है। इस इलाके के पूर्व की सीमा पर पूर्वी घाट हैं तो पश्चिम में अबूझमाड़ की पहाड़ियां। दंडकारण्य छत्तीसगढ़, ओडिशा, आंध्रप्रदेश और तेलंगाना राज्य की सीमा है। इसका विस्तार पूर्व से पश्चिम तक लगभग 480 किलोमीटर तो उत्तर से दक्षिण तक लगभग 320 किमी है। रामचरित मानस में उल्लेखित राक्षस दंडक के निवास के कारण ही इस क्षेत्र का नाम दंडक वन पड़ा था। प्राचीन समय में नल, वाकाटक और चालुक्य वंशजों का इस क्षेत्र पर सफलतापूर्वक शासन करने का उल्लेख मिलता है। इस क्षेत्र में मूलत: गोंड आदिवासी निवासरत हैं। बात अगर क्षेत्र की करें तो यहां का अधिकतर भाग रेतीला और समतली है, जिसकी ढलान क्रमश: उत्तर से दक्षिण-पश्चिम की तरफ है। दंडकारण्य में व्यापक वनाच्छादित पठार और पहाड़ियां हैं, यह पूर्व दिशा से अचानक उभरती हैं और पश्चिम की ओर धीरे-धीरे इनकी ऊंचाई कम होती जाती है। यहां कई अपेक्षाकृत विस्तृत मैदान भी हैं। इस क्षेत्र की जल निकासी महानदी जिसकी सहायक नदियों में तेल जोंक, उदंती, हट्टी और सांदुल शामिल हैं और गोदावरी जिसकी सहायक नदियों में इंद्रावती और साबरी शामिल हैं। पठार और पर्वतीय इलाकों में दोमट मिट्टी की पतली परत है। वहीं मैदानी इलाके और घाटियों में उपजाऊ जलोढ़ मिट्टी है। इस क्षेत्र में आर्थिक रूप से कीमती साल के नम वन हैं। यह कुल क्षेत्र के लगभग आधे हिस्से में फैले हैं। दंडकारण्य क्षेत्र की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है, फसलों में धान (चावल), दालें और तिलहन शामिल हैं। उद्योगों में धान और दलहन (अरहर) की मिलें, आरा घर, अस्थि-चूर्ण निर्माण, मधुमक्खी पालन और फर्नीचर निर्माण उद्योग के साथ ही कई कंपनियां क्षेत्र में अपना विस्तार कर चुकी हैं। दंडकारण्य में बॉक्साइट, लौह अयस्क और मैगनीज के भंडार हैं। इसी क्षेत्र में केंद्र सरकार ने 1958 में पाकिस्तान(वर्तमान बंगलादेश) से आए शरणार्थियों की मदद के लिए दंडकारण्य विकास प्राधिकरण का गठन किया। यहां पखानंजूर जलाशय, जगदलपुर, बोरेगांव और उमरकोट में काष्ठ शिल्प केंद्र और शरणार्थी पुनर्वास क्षेत्रों में बलांगीर-कोल्लम रेलवे परियोजना सहित सड़कों और रेलमार्गों का निर्माण किया। मुख्य रुप से विमानों के इंजन फैक्ट्री सुनाबेड़ा में स्थित है। राष्ट्रीय खनिज विकास निगम बैलाडीला में लौह अयस्क का उत्पादन करता है। दंडकारण्य के महत्त्वपूर्ण नगरों में सुमार रहा है जगदलपुर, भवानीपटना और कोरापुर हैं। कहानी यहीं से शुरू होती है जगदलपुर और झीरम की। यह दंडकारण्य का क्षेत्र हैं और पाकिस्तान के शरणार्थियों का सराय। नासूर नक्सल का गढ़, इनका सहयोग स्थानीय लोग कुछ डरकर तो कुछ उस विचारधारा से जुड़कर दे रहे हैं। इतना ही नहीं इनसे कुछ लोग लाभ कमाने के लिए तो कुछ वास्तविक पीड़ित लोग भी जुड़ गए हैं जो शासन के दूषित व्यवस्था से परेशान थे। इन्हीं में से कुछ की हैवानियत ने इस दंडकारण्य क्षेत्र को एक बार फिर बताया कि यहां शैतानों और राक्षसों का साम्राज्य अभी भी समाप्त नहीं हुआ है। इसकी चर्चा झीरम के हमले से शुरू होता है और दूर तक चला जाता है। प्रमुख शहर जगदलपुर से 45 किमी दूर झीरम को 25 मई 2013 को चर्चा में लाया। इस अनजान घाटी को देश दुनिया में चर्चित कर दिया। हालांकि यहां नक्सलियों का बस का दोष देना गलत है, क्योंकि उन्हें नक्सली बनने पर कहीं न कहीं राज्य और देश की सरकारों की व्यवस्थाओं ने मजबूर किया है। कभी कांग्रेस तो कभी भाजपा, जनता दल, समाज वादी और न जाने कितनी ही पार्टियां है जो इसके लिए जिम्मेदार हैं। सुकमा-जगदलपुर-कोंटा राष्ट्रीय राज मार्ग पर सुकमा से लगभग 45 किमी दूर और जगदलपुर लगभग 45 पहले सुनसान सन्नाटा वाली चौड़ी सड़कों को अपने सीने में बिछाए खुबसुरत वादी है। यह लगभग 30 किमी क्षेत्र में छोटे-छोटे मोड़ का क्षेत्र है। इसमें 100-100 मीटर ऊंची पहाड़ियां है तो दूसरी ओर इतनी ही गहरी खाई भी है। सुकमा से जगदलपुर की ओर जाने पर पहले झीरम फिर दरभा थाना आता है। झीरम दरभा क्षेत्र में पड़ने वाली वादी है। यह कब खून की प्यासी हो जाए कोई नहीं जानता। यह क्षेत्र तीन राज्यों से जुड़ी हुई है... छत्तीसगढ़, ओडिशा और आंध्रप्रदेश। इस अनजान झीरम को 25 मई 2013 के शाम 4.45 बजे से पहले बस्तर संभाग के लोग और इस क्षेत्र से गुजरने वाले राहगीरों के अलावा शायद ही किसी ने नाम भी सुना हो। वहीं यह शब्द 4.45 बजे के बाद इतनी बार लिया गया, इतना इस नाम को लोगों ने सुना और कहा की यह कहानी बन कर शुरू हो गई। सच ही तो है, यह कहानी 25 मई की शाम घटी और इस अनजान झीरम के लिए न मिटने वाला दाग दे गई। दरभा शिव मंदिर से 4 किमी पहले घुमावदार मोड़ और ऊंचे पहाड़ व गहरी खाई के बीच नक्सलियों का हमला मन में भय पैदा कर लोगों के दिल में डर का जगह बना ली।

आने वाली कड़ी...

 झीरम संस्मरण- 1

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